भ्रष्ट सिस्टम और नेताओं की उपेक्षा का शिकार बना रूर शहीद स्मारक स्थल
रूरे के लोगों ने की अपने मन की बात

गाँव लहरिया न्यूज/पट्टी
पट्टी तहसील के रूर गांव में बना शहीद स्थल स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में किसानोंकी भूमिका के स्वर्णिम अध्याय की याद दिलाता है। पट्टी की क्रन्तिभूमि से उपजे किसान आन्दोलन ने देश में चल रहे आन्दोलन को दिशा दी आजादी के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे महात्मा गाँधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू को नहीं राह दिखाई आज वही क्रन्तिभूमि अपनी उपेक्षा की कहानी बयां कर रही है। गाँव लहरिया ने ग्राउंड पर जाकर पड़ताल की और इस निष्कर्ष पर पहुंची की प्रतापगढ़ जिले का नेत्रत्व निहायत गैरजिम्मेदार है और अफसर नकारा तभी तो राष्ट्रीय महत्त्व के इस स्थान को उपेक्षित रखा है ….
यह रूरे गाँव उस बात का साक्षी है जब देश में किसानों पर बर्बरता अत्याचार और जुल्म बेतहाशा बढ़ गया तो यहां के किसानों ने विद्रोह कर दिया। गिरमिटिया मजदूर के रूप में रामचरितमानस का पाठ करते हुए बाबा रामचंद्र रूर पहुंचे और यहां के किसानों को एकजुट करना शुरू किया। उनके सीताराम का उद्घोष करने से बड़ी संख्या में किसान पहुंच जाते थे।छह जून 1920 को महात्मा गांधी इलाहाबाद (वर्तमान प्रयागराज) आए तो किसानों का एक जत्था उनसे मिलने पहुंचा, लेकिन तब तक महात्मा गांधी वहां से रवाना हो चुके थे। उसके अगले सप्ताह पंडित जवाहरलाल नेहरू रूर गांव किसानों से मिलने पहुंचे और उनका उत्साहवर्धन किया। बाबा रामचंद्र के कुशल नेतृत्व से अंग्रेजी हुकूमत बौखलाहट में थी । 28 अगस्त 1920 को क्षेत्र के लखरावां बाग में लकड़ी चुराने का आरोप बाबा रामचंद्र पर लगा और 30 अगस्त को अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इससे नाराज किसानों का हुजूम प्रतापगढ़ मुख्यालय पर इकट्ठा हो गया। किसानों की भीड़ को देखकर अंग्रेज प्रशासन के हांथ पाव फूल गए।तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर वैकुंठनाथ मेहता की अनुपस्थिति में भी बाबा को जेल से जमानत पर रिहा कर दिया गया। 17 अक्टूबर 1920 को रूर में अवध किसान सभा का गठन किया गया, जिसमें बाबा रामचंद्र, ठाकुर झिगुरी सिंह और सहदेव सिंह की प्रमुख भूमिका रही। बाबा रामचंद्र को किसान सभा का अध्यक्ष व माता बदल पांडेय को मंत्री बनाया गया। इस संगठन में अयोध्या वर्मा, भगवानदीन वर्मा, काशी वर्मा, अक्षयवर सिंह, माता बदल मुराई तथा प्रयाग वर्मा का योगदान महत्वपूर्ण रहा। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने इनकी प्रशंसा अपनी आत्मकथा में की है। आज भी शहीद स्थल रूर किसानों की शहादत को संजोए हुए स्मारक के रूप में खड़ा है।