आवश्यकता है महिलाओं को अपनी सुरक्षा स्वयं सुनिश्चित करने की

बड़ी विचित्र विडम्बना है, एक तरफ कभी त्रेता (सीता हरण) और द्वापर युग (द्रौपदी चीर हरण) में घटी घटनाओं की आलोचना आज तक की जाती है तो वहीं दूसरी ओर आज आए दिन न जाने कितने चीर हरण हो रहे हैं। पानी सिर से ऊपर तब चला जाता है जब अपने ही देश में कुछ महिलाओं को पुरुषों द्वारा सरेआम निर्वस्त्र घुमाया जाता है। वर्तमान समय में तथा पहले भी महिलाओं के लिए समाज हमेशा से ही अनुशासन तथा सहिष्णुता के अध्यायों से भरा रहा है, उनके लिए समाज में ज्ञान की किसी भी समय कमी नहीं रही और वे ज्ञान को बकायदा आत्मसात भी करती रहीं लेकिन परिणाम इसके बाद भी सुधरने के बजाय बद से बदतर ही होते गये। इतने सब के बाद भी महिलाओं को ही दोष दिया जाता है अब तक महिलाओं द्वारा रात में घर से बाहर निकलना तथा कहीं आना-जाना असुरक्षित माना जाता रहा है। लेकिन अब क्या ? अब तो अपने ही देश के एक राज्य मणिपुर में सामुदायिक संघर्ष के बीच कुछ महिलाओं को पुरुषों की भीड़ द्वारा सड़क पर निर्वस्त्र घुमाया गया। अब मानो हमारे ग्रथों इतिहास एवं साहित्यों में संहिताबद्ध आदर्श एवं उक्तियों जैसे- “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” एवं “नारी! तुम केवल श्रद्धा हो।” जैसी आदर्शात्मक उक्तियों ने इस प्रकार की विशद त्रासदी देखकर अपने आप को शर्म से कस कर समेट लिया हो।इस प्रकार की स्थिति एवं परिदृश्य को देेखकर महिलाओं को स्वयं समझना होगा केवल समझने भर ही नहीं बल्कि उन्हें अपनी सीमित, छोटी और संकुचित मानसिकता को छोकड़कर अपनी मौलिकता एवं महत्व को समझने की आवश्यकता है। महिलाएँ स्वयं पर्याप्त हैं तथा वे केवल किसी परिवार की ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज और राष्ट्र की भी एक महत्वपूर्ण इकाई हैं। महिलाओं को उनके स्वयं की भूमिका के विस्तार को समझने के साथ ही साथ उनमें वैचारिक विस्तार की आवश्यकता है। त्रेता और द्वापर युग बीत चुके हैं। अब यहाँ राम या श्याम आएंगे ऐसा मानना मिथक है।वर्तमान परिदृश्य में महिलाओं की स्थिति को देखकर यहीं लगता हैं कि आखिरकार जब रक्षक ही भक्षक हो जाय तो ऐसे में स्वयं के अलावा अपेक्षा ही किससे की जाय बाकि जो रहे द्वापर और त्रेता वाले वे आज पत्थर के रूप में स्वयं पड़े हैं। कुल मिलाकर महिलाओं को उनकी अपनी समस्याओं से स्वतः उबरने की आवश्यकता है तथा अब तो किसी भी प्रकार की अपेक्षाएँ व्यर्थ हैं क्योंकि : –

“स्वयं जो लज्जाहीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचायेंगे
सुनो द्रौपदी ! शस्त्र उठा लो
अब गोविन्द ना आयेंगे !!
अब गोविन्द ना आयेंगे !!!”

यह विचार आकांक्षा शर्मा के हैं 

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